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ग़ज़ल

KUCH MERI KUCH TERI
KUCH MERI KUCH TERI
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क़तरा क़तरा मिल रही थी ज़िन्दगी जीया किये !
क़तरा क़तरा बिक न जाए अब ख़ुदी माँगा किये !!

था बरतना एहतियातन रू-ब-रू हों तब अदब !
मुस्कुराना छोड़ के देखा वो जब देखा किये !!

फितरतों की एक नयी फ़हरिस्त फिर दिखने को है !
रहनुमाई में बसर को जिनकी हम चाहा किये !!

एक सूरत एक सीरत किसकी रह जाती यहाँ !
अपने चेहरे पर सभी हैं सूरतें ओढ़ा किये !!

सादगी यूँ गुम हुयी पढ़कर क़िताब-ए-ज़िन्दगी !
बेज़ुबां से ज़िन्दगी के मायने ढूँढा किये !!

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