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ग़ज़ल

KUCH MERI KUCH TERI
KUCH MERI KUCH TERI
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मुहल्ले भर में रिश्तों की वो थाती याद आती हैं !!
यहाँ जंगल में हूँ बस ये बताती याद आती हैं !

मेरे भाई के जैसे सब किसी भी बात पर हम इक !
मगर फिर बातें ही झगड़े लगाती याद आती हैं !!

यहाँ ऐसा नहीं वैसा, नियम कानून की बातें !
हरइक ही खेल में हमको लड़ाती याद आती हैं !!

बिना मिलते रहें कैसे, बिना खेले जियें कैसे !
सवेरे रंजिशें सब भूल जाती याद आती हैं !!

उठाकर गोद में कोई भी बच्चा खेलना उनका !
कभी कमरे में बहनें गुनगुनाती याद आती हैं !!

जो राखी में हो थोड़ी देर मुंह उपवास से सूखा !
मगर पहुंचें तो बहनें मुस्कुराती याद आती हैं !!

कभी पेड़े तो लड्डू में दबाकर भइया दूज के दिन !
वो गोबर से सनी बजड़ी खिलाती याद आती हैं !!

कभी हम छोटे सइयां तो कभी बहनों के हम आशिक़ !
हमारी भाभियाँ हमको चिढ़ाती याद आती हैं !!

सिनेमा हो कभी मेला हो या भगवान् का दर हो !
कहीं जाना हो देवर जी बुलाती याद आती हैं !!

किसी के भी रहें दादा जी छड़ियाँ उनके हाथों की !
हमें पढ़ने बिठाने छटपटाती याद आती हैं !!

कोई चाची इधर हों या उधर बूआ लगें कोई !
कभी बगिया कभी पूए खिलाती याद आती हैं !!

वो मामा दूध का व्यापार है मामी तो बस हमपर !
सुबह हो शाम हो लस्सी लुटाती याद आती हैं !!

कभी अम्मा की थप्पड़ ज़ोर से लग जाए तो मौसी !
बगल से चोट पर सहलाने आती याद आती हैं !!

वो छोटी शीशियाँ भी इत्र की रहमान चाचा की !
हमारे कपड़ों में खुशबू बसाती याद आती हैं !!

हमारे घर में आती रोज़ थीं दो बार जो दाई !
वो मीरा के भजन सा कुछ तो गाती याद आती हैं !!

किसी के घर की बगिया में खिला इक फूल नन्हा सा !
कि सब थाली बजा सोहर सुनाती याद आती हैं !!

नज़ाकतें सारे रिश्तों में यहाँ जंगल में भी देखो!
यहाँ भी जीने का रस्ता बताती याद आती हैं !!

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