Menu
blogid : 11416 postid : 570273

चर्चा

KUCH MERI KUCH TERI
KUCH MERI KUCH TERI
  • 17 Posts
  • 28 Comments

चर्चा:
‘मेरा मेरा, तुम्हारा तुम्हारा’, ऐसी ज़िन्दगी कितनी नीरस होती है न? ऐसे ही जिए जाएँ तो भी और इसको आत्मसात करते हुए जीयें तो भी. कोई ज़िन्दगी हुयी ? ज़िन्दगी का मज़ा तो तब है जब उसमे कुछ प्यार-मुहब्बत हो, विश्वास हो, अपनापन हो, शेयरिंग हो, है न ? कुछेक नमूने यहाँ पेश हैं.
अखबार. उपरोक्त मानवीय मूल्यों को दर्शाता सबसे बड़ा नमूना. मानवीयता के इस पक्ष का सबसे पुराना खिलाड़ी. अपने लिए जो सिस्टम इसने यहाँ लागू करवाया है, उस सिस्टम की इतनी बड़ी तादाद में फैन फोलोविंग है की अपने को किसी स्टार से कम न समझता होगा. पड़ोस के एक चाचा हैं, हर दिन आते हैं. मेरे पिताजी थोड़ा थोड़ा करके पढ़ने के आदी हैं तो चाचा पूरे विश्वास से अखबार उठाते हैं. जैसे उन्हीं के लिए रखा हुआ हो, और उनके हिसाब से जो ख़बर जिसको सुनाई जा सकती है, वो घर में हो न हो, खाली हो न हो, नाम ले ले कर सुनाते हैं.ज़बरदस्त शेयरिंग है.
एक और घर है जहाँ की शाम की चाय का दूध लगभग रोज़ मेरे ही घर से जाता है. कभी कभी चीनी भी. हालाँकि उस घर वाले मामाजी की, जो मेरे पिताजी की ही उम्र के हैं, हर शाम की चाय मेरे पिताजी के साथ यहाँ फिक्स है. ऐसा नहीं की उनके घर में किसी तरह की दिक्कत है. दो भैसें हैं, खूब दूध होता है. हमारे घरों में दूध वहीँ से खरीदा जाता है. ख़ालिस दूध बेचते हैं. लेकिन परिवार इतना बड़ा है, सबको दूध पीने की आदत बचपन से डाली जा चुकी है. दूध कब ख़त्म हो जाता है पता ही नहीं होता. अब दूध सादा थोड़े न पीयेंगे, चीनी भी ख़त्म होती रहती है. अपनापन देखिये !!
एक हैं हमारे भुल्लन भैया. पुराने रईसों के घर से हैं. बहुत कुछ बर्बाद हो गया, थोड़ा कुछ बचा है. शराब के बेहद शौक़ीन. कहा जाता है की सुबह हाथ मुंह भी शराब से ही धोते हैं. अब मुंह हाथ और जाने क्या क्या धोयेंगे तो अपना स्टॉक तो ख़त्म हो ही जाएगा ना ? फिर सारे मोहल्ले में, जो लोग शराब पीने वाले हैं, उनके घरों में एक एक कर घुसते हैं. पूरे विश्वास और अपनेपन से, जिससे जैसा रिश्ता है, हमेशा रिश्ते के नाम से बुलाते हुए, यानी भाई, चाचा, भतीजा, कहते हैं शराब पिलाओ. मैं भी उनके जैसाही भाइयों में से एक हूँ. घरों में शराब तो नहीं पिलाता कोई. अपना स्टॉक तो सभी बचाते हैं. मैं भी बचाता हूँ. कुछ पैसे वगैरह कभी ले लेते हैं. हाँ वो अपनी शाम से सुबह का इंतज़ाम खुद से करना नहीं भूलते.
एक घर है जो सारी ज़िन्दगी मेरे फ्रिज के पीछे पड़ा हुआ है. क्या था के, मोहल्ले में हम जितने भी करीबी रिश्ते वाले घर हैं, उनमे सबसे पहले फ्रिज मेरे ही घर में आया था. गर्मी के मौसम में. तो बर्फ बनाये जाने का सिलसिला जो शुरू हुआ वो ख़त्म ही नहीं होता था. सारे घरों में बर्फ़ की सप्लाई की ज़िम्मेदारी हमें उठानी पड़ी. तबतक जबतक एक एक करके और कई घरों में फ्रिज नहीं आ गया. फिर कुछ साल बाद लोगों के घर में फ्रिज बिगड़ने लगा. मशीन है, तो बिगड़ेगा ही ना? बिजली और वोल्टेज का हमारे शहर में घोर संकट रहता है. मेरा फ्रिज भी खराब होता था, बनवाना पड़ता था. शुरू शुरू में दूसरों ने भी अपना फ्रिज खराब होते ही बनवाया. फिर उकता गए और बंद कर दिया. यहाँ लोग उकता बहुत जल्दी जाते हैं. सातवीं आठवीं तक पढ़ते पढ़ते उकता गए तो पढ़ाई छोड़ दी. नौकरी से उकता गए, नौकरी छोड़ दी. यहाँ नौकरी से उकता वही नहीं जाता जिसे पता होता है की नौकरी छोड़ना उसके लिए संभव ही नहीं है. एक साहब ने तो बस इस बात पर उकता कर की उनका बच्चा इतना ठंढा पानी पीता है की सर्दी खांसी जाती ही नहीं, दोबारा फ्रिज खराब हुयी तो फिर आज तक नहीं बनवाया है. इन्हीं महाशय के घर को तब से हमारा फ्रिज अनवरत रूप से सेवाएं देता रहा है. यहाँ बस मेरे माता पिता ही रहते हैं तो एक रैक उनके लिए काफी होती है. बाकी के तीन रैक उन महाशय के दूध, अंडे, पेप्सी वगैरह ठंढा करते रहते हैं. इस बार देख रहा हूँ, निचली रैक और सब्ज़ी की ट्रे पर मेरे में घर खाना बनाने वाली का कब्ज़ा है. उसकी सब्ज़ी की दूकान है. शाम तक जो सब्ज़ी बची, यहाँ आकर ताज़ा रहती है. देखी शेयरिंग ??
एक घर से बड़कू भैया हैं. अभी नहाते हैं, अभी बदन महकने लगता है. कभी तकिये पर बगलें टिकाकर लेट गए तो बस धुलवाए बगैर आप सर नहीं टिका सकते. ये शिकायत मेरे साथ भी है, इसलिए मैं पहले तगड़ा परफ्यूम और अब ख़ास ख़ास डिओड्रन्त रखता हूँ. एक बार यहाँ आया तो बड़कू भैया मिलने आये. इतना महक रहे थे की माँ से नहीं रहा गया. उन्होंने नाक सिकोड़ते हुए मुझसे कहा की वो जो लगाता हूँ उनके बदन पर भी थोड़ा छिड़क दूं. मैंने छिड़क दिया. फिर क्या था. बड़कू भैया को उसकी आदत लग गयी. दिन भर में पांच बार आयें और बगलें उठाकर कहें वो फुस फुस छिड़क. इस बार पुराने के साथ एक नया डब्बा लाया था. नया वाला ही उठा ले गए हैं. ऐसा अटूट विश्वास ?? क्या मजाल की भाई कुछ बोल जाए ??
अब दूध दही तक तो ठीक है, ये बड़ा भारी पड़ा है. क्या किया जाए ऐसे में !?!?
मेरे माता पिता की ज़िन्दगी यहाँ गुज़री. उस ज़माने में मिल बाँट के काम चल जाता था. यहाँ ज़रूरतें आज भी छोटी छोटी ही होती हैं. मोहल्ले में सबसे अधिक उम्र के वृध्ह होने की वजह से इनकी ज़रूरतें और भी कम हैं. इस सब के बदले में मेरे माता पिता को जो प्यार, जो इज्ज़त और जो ‘लोग’ यहाँ मिलते हैं, और कहाँ मिलेंगे ? यही तो इनकी सबसे बड़ी ज़रुरत है. हमारा रोजगार हमें यहाँ लौटने नहीं देगा. लेकिन हम जिस तरह की ज़रूरतों के आदी हो चुके हैं, उनका मिलना बांटना क्या इतना आसान है ? तो फिर वही सवाल, क्या करें ???
ये सिस्टम, ये मानवीय मूल्य, मेरे माता पिता ही जी सकते हैं. बेहतर होगा इसे बरक़रार रखते हुए मैं यहाँ बस आता जाता रहूँ. नहीं ?

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply